राजस्‍थानी-हिन्‍दी साहित्‍यकार

सीधो : अनूदित कहानी

Justify Fullमूल- राजस्‍थानी

''दादी राम-राम!``
''राम-राम बेटा, राम-राम।`` कहते हुए दादी ने अपने पल्ले की ओट में किये हुए धामे से कटोरी निकालकर उसे दी और वह कटोरी लेकर रसोई में गया।
''दादी को आटा दीजिए।``
मां ने कटोरी को पहचाना। कटोरी को उसके हाथ से लेकर पीपे में डाला। कटोरी बाहर निकालते वक्त मां की नजरों ने आटे को तौला। एक रोटी जितना हो तो ठीक, वरना वापिस निकाला जाए! एक रोटी के अंदाज से आटा रखकर उसे पकड़ाया। वह कटोरी लेकर दादी के पास गया। पीछे से मां के बोल उसके और दादी के कानों में पड़े- ''दादी को पूछना, आज कौनसी तिथि हो गयी?``
''आज तो दसमीं ही है, कल एकादशी है। निरजला एकादशी का व्रत करोगी क्या?`` प्रत्युत्तर दादी ने ही दिया।
धोलिये का इतना काम तो नित्य-नियम का ही है। दो घड़ी दिन चढ़ते ही दादी उनके एवं गांव के दूसरे घरों से आटा लेने आती है। सब घरों में तिथि एवं व्रत-उपवास की जानकारी भी देती है। धोलिये ने जिस दिन आंखें खोली, उसी दिन से ही दादी को इसी भांति आते देखा। बड़े-बूढ़े, लुगाई-बच्चे सब उसे दादी कहते। वह जगत-दादी ही है। कुछ समझने लायक हुआ तब उसने बात को कुरेदा।
''मां, ये दादी सभी की दादी कैसे है?``
''बेटा, ब्राह्मण जन्म से ही दादा कहलाता है। ये ब्राह्मणी दादी हैं।``
''ये अपने घरों से आटा क्यों लेती हैं?``
''तुम्हारी दादी ने ही शुरू करवाया था। बाल विधवा हैं। खाने-कमाने का कुछ साधन नहीं है। एक दिन तुम्हारी दादी के आगे अपना दुखड़ा प्रकट किया, तब तुम्हारी दादी ने कहा कि घरों से आटा ले लिया करो और बिनणियों को तिथि-वार बता दिया करो। हमारे दो चिमठी आटे से कोई फर्क नहीं पड़ेगा और आपको रोटी का टोटा नहीं रहेगा। बस, तभी से ही दादी ने अपनी यह लाइन पकड़ी रखी है।``
धोलिया कुछ समझा और कुछ नहीं समझा। परंतु, दादी को देखकर कटोरी लेने में चूक नहीं होने देता।
जब कभी एकादशी-चतुर्थी होती तो मोहल्ले की लुगाईयां दादी से कहानी सुनने के लिए पाबूजी के खेजड़े के नीचे इकट्ठी हो जातीं। चतुर्थी की कहानी सुनने के लिए सुहागनें कांसें की थाली में रोली-मोली, धान और गुड़ की डली लेकर जातीं। गली में खेलते बच्चे और दादी के हेतालु सब उनके पास जा पहुंचते। दादी सब लुगाईयों के आने के बाद कहानी कहती- ''रामजी भला दिन दें, एक गांव में चांद उगा नहीं...... भाईयों से बहिन की भूख देखी नहीं गई..... चांद तो उगता-सा ही उगे.... भाईयों ने गांव के बाहर 'मिरड़ा` जलाया..... बहिन को दिखाया कि देख बाई चांद उग आया..... करवा ले, ये करवा ले, व्रत भांजना करवा ले, भाईयों की बहिन करवा ले...... ..........सुनते-संभलते दुबारा कोई ऐसा करे....चौथ माता उसको तूठी वैसी सभी को तूठे।``
धोलिये जैसे बच्चे ध्यान लगाकर कहानी सुनते। बीनणियां धान के दाने हाथ में लिए हुंकारे देती। कहानी पूरी होने के पश्चात् वे चौथ माता के 'गडिये` को पानी और हाथ से दानों का अर्घ्य देतीं और फिर थालियों में से गुड़ की डलियां और धान दादी के धामें में डाल देतीं। कहानी सुनाने वाले दिन दादी दो धामे रखतीं। लुगाईयां अपने-अपने घरों के काम में वापिस लग जातीं और दादी दूसरे घरों की और... इन व्रत-उपवासों के दिन दादी को आटे के साथ धान और गुड़ दोनों ही मिल जाते।
पचास-एक घरों का गांव। राज की ओर से इस गांव में पांचवीं तक की पाठशाला और कुछ नहीं। जो भी है, गांव का है। नीम, पीपल, टाली और दूजे वृक्ष गांव वालों के ही लगाए हुए। पानी के लिए एक कुआं। गांव के ही सेठ ने बनाकर गांव को सौंपा। सेठ गांव में नहीं रहता, उसके बाप-दादा रहते थे। सेठ का घर अब कस्बे में है और अपने कारोबार से दिल्ली-मुम्बई-कोलकाता और पता नहीं कहां-कहां रहता है, परंतु, गांव की ममता उसमें मरी नहीं है। गांव में भोगी हुई तकलीफें उसको अभी भी याद हैं।
गांव के एक-दो मनुष्य तो इस इंतजार में रहते हैं कि कब सेठ कस्बे से आए और वे उनके सामने अपने दुखड़े गाएं। पानी का काम धर्म का काम, धर्म की जड़ सदा हरी। पूरा गांव और जीव-जंतु आशीष देते। इस मरुभूमि में तो पानी अमृत। गांव में एक पंडितजी-पंडितानीजी का भी निवास है। सेठ का रहना जब गांव में था तब इन पंडितजी ने ही उनका नाम निकाला, 'धर्मचंद`, और सेठ अपने नाम को आज लजाता नहीं है। परंतु, पंडितजी के हाथ से एक अच्छा यजमान निकल गया। पंडितजी सबसे कमजोर। उसके धंधे के तीन ही त्योंहार- जन्म, विवाह और मृत्यु। खेती-बाड़ी उनके स्तर के अनुरूप है ही। अधिक तो कमजोर से की जाती और संभाली जाती। गृहस्थी की गाड़ी चलाता, परंतु लगातार पड़ते अकालों ने आगे कर लिया। पंडितजी भी सेठ के शरण में जा पहुंचे। पंडितजी का रोना सुनकर सेठ ने अपने गांव वाले घर की जगह मंदिर बनवाकर उसकी सेवा-पूजा संभाला दी। ठाकुरजी के दर्शन करने हेतु आने वाले 'सीधो` (आटा-मसाला आदि सूखी खाद्य सामग्री) लेकर आते और ठाकुरजी के चढ़ावा चढ़ाते। पंडितजी की जुगाली का जुगाड़ हो गया। बदले में पंडितजी भोर में समूचे गांव को जगाते और ज्ञान बांटते। गांव वालांे ने भी पंडितजी की सेवा के बदले 'सीधो` पहुंचाने का घर-प्रति नियम बांध लिया।
''सज्जनो......, चार बजे हैं........ चा .... ......!`` अलसुबह की मीठी नींद में सोते हुए मनुष्यों का भगवान की बेला में जगाने के लिए ये बोल ठाकुरजी के मंदिर पर लगे हुए लाउड-स्पीकर से तीन बार सुने जाते। इसके पश्चात् कुछ समय की चुप हो जाती। शायद पंडितजी गांव वालों को आगाह कर नहाने-धोने में लग जाते। ठंडी सुबह की नींद लेने वाले आलस में पड़े दुबारा आंख मींच पड़े रहते। लुगाईयां जागकर गोबर-पोठा, फूस-बुहारी के कामों में संलग्न हो जातीं।
''जागो, जागो अरे सपनों में खोए हुए नरों जागो ....., जागो, जागो...... अरे मोह, माया की तृष्णा में खोए हुए लोगों जागो......, जागो, जागो।`` मंदिर के लाउड-स्पीकर से पुन: पंडितजी की आवाजें आतीं। वे अपने नित्यकर्म कर मीठी राग में मनुष्यों को जगाते और भजन गाते। रामजी का स्मरण करते- 'नटवर नागर नंदा, भजो रे मन गोविंदा, सांवली सूरत मुख चंदा, भजो रे मन गोविंदा.......` अपनी इस बोली का गांव वालों पर कितना असर होता है, इसकी परवाह किए बगैर नित्य-नियम से पंडितजी अपना काम करते।
दिन बीतते बरस नहीं लगते। धोलू अब बच्चा नहीं रहा। कस्बे में जाकर दो अक्षर भी सीखे। दसवीं पढ़ने के बाद लगातार पड़ते अकाल और गांव में रोजगार की कमी देखकर घरवालों ने उसे सेठ धर्मचंद के पास भी भेज दिया।
अब धोलू सेठ धर्मचंद की कोलकाता वाली गद्दी पर काम करता है।
वहां कब दिन उगता और छिपता, उसे पता ही नहीं चलता। वहां के नौकर जब छुट्टी करके घर जाने की तैयारी करते तब वह घड़ी की ओर देखता और सोचता कि अब शाम होगी। घड़ी से ही चौबीसों घंटों का पता चलता। जब आंख लगती तब वह झपकी ले लेता और जागते ही वापिस काम में लग जाता।
साल-दो साल से जब गांव आता तब उसके सामने बचपन का धोलिया खड़ा होता। भोर की मीठी नींद और मंदिर से पंडितजी के मीठे बोल 'सज्जनो......, चार बजे हैं........ चा ............!` और दो घड़ी दिन चढ़ते ही, 'टाबरो, दादी को आटा देवो।` 'राम-राम दादी।` 'राम-राम बेटा, राम-राम।`
परंतु, इस बार तीन बरस के बाद धोलू गांव रवाना हुआ। रेल में बैठते ही गांव के चित्राम उनकी आंखों के सामने तैरने लगे। खड़घच-खड़घच करती रेल में थोड़ी-सी झपकी पड़ी तब उसको पंडितजी के मीठे-मीठे भजन सुनाई दिए। परंतु, ठंडी भोर की मधरी-मधरी हवा की जगह रेल के पंखों की गर्म हवा और मनुष्यों के सांसों की गर्मी से आंखें खुल गईं। कस्बा नजदीक गया था। उसने अपना सामान समेटा और उतरने की तैयारी करली।
इन तीन बरसों में बरसात नहीं हुई। गांव के ज्यादातर कमाने वाले नहरों की तरफ गए। धन-पशुओं की दुर्गति हो गई। कई तो मर गये और बचे हुए सांकल जैसे हो गये। इन बातों का धोलू को कुछ-कुछ पता था, इसी कारण वह इस बार गद्दी से कुछ ज्यादा ही पैसे लेकर आया था।
तीन बरसों से थका हुआ धोलू आज गांव के डागले में मांचा लगाकर अच्छी नींद ले रहा था। भोर का मीठा पहर- 'सज्जनो......, चार बजे हैं.....चा ....... ......!` सुनते हुए भी उसने फिर से आंखें मींच ली। परंतु, अगले बोल उसकी आंखें खोलते गए। मंदिर के लाउड-स्पीकर से समूचे गांव में पंडितजी की आवाज तैर रही थी- 'भाईयो, इन-इनके घरों से इतने दिनों से 'सीधा` नहीं पहुंचा है..... ऐसे कितने दिन चलेगा? कुछ तो मेरा भी ध्यान रखो, बेटी के बापों! ऐसा बिल्कुल ही क्या कर रहे हो?``
धोलू झट मांचे से आंखें मसलकर उठ खड़ा हुआ। आज जैसा भजन उसने कभी नहीं सुना था।
उसके अंदर जीने वाला धोलिया जाने कहां चला गया था।


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